“मैं जब लिखता हूँ, कोई और होता हूँ”...
Posted on Sept
इस दुनिया से दूर, कहीं और होता हूँ
मैं जब लिखता हूँ, कोई और होता हूँ।
मैं जब लिखता हूँ, कोई और होता हूँ।
मुझ को भी पता नहीं, कहाँ तक है हद मेरी
जो नामुमकिन लगे है, वही तो है ज़िद मेरी।
जो नामुमकिन लगे है, वही तो है ज़िद मेरी।
अंदर के समंदर में मैंने, कई तूफ़ान छुपाए हैं
क़ुबूल नहीं हो कभी जो, माँगी ऐसी दुआएँ हैं।
क़ुबूल नहीं हो कभी जो, माँगी ऐसी दुआएँ हैं।
लफ़्ज़ों के काँधे पर, सिर रखकर रोता हूँ
मैं जब लिखता हूँ, कोई और होता हूँ।
मैं जब लिखता हूँ, कोई और होता हूँ।
काग़ज़ और क़लम, हैं दोनों मेरे हमदम
ज़िंदगी के तन्हा सफ़र में, साथ चले हरक़दम।
अपने ही अक्स में, हज़ार शख़्स नज़र आते हैं
तलाश में जिनकी, जज़्बात लफ़्ज़ बन जाते हैं
दर्द की बारिश में, रूह को भिगोता हूँ
मैं जब लिखता हूँ, कोई और होता हूँ।
इस दुनिया से दूर, कहीं और होता हू
मैं जब लिखता हूँ, कोई और होता हूँ।
ज़िंदगी के तन्हा सफ़र में, साथ चले हरक़दम।
अपने ही अक्स में, हज़ार शख़्स नज़र आते हैं
तलाश में जिनकी, जज़्बात लफ़्ज़ बन जाते हैं
दर्द की बारिश में, रूह को भिगोता हूँ
मैं जब लिखता हूँ, कोई और होता हूँ।
इस दुनिया से दूर, कहीं और होता हू
मैं जब लिखता हूँ, कोई और होता हूँ।
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